हरिद्वार। विकारों से वशीभूत आत्मा परवश होकर बेहोश आत्मा में बदलकर कहती हैं मैं क्या करूं, कैसे करूं, कुछ समझ में नही आ रहा है। सुप्रीम जस्टिस परमात्मा लव और लार दोनों का बैलेंस रखते हैं। इसलिए रहम दिल बनकर रियायत भी करते हैं। लेकिन, लाॅ अर्थात कानून के आधार पर दंड भी देते हैं। दो तीन बार माफ भी कर देते हैं। लेकिन, ईश्वरीय लाभ होने के कारण और ड्रामा प्लान के अनुसार हमारे कर्मों का भोगना आॅटोमैटिक्ली हो जाता है। यह ईश्वरीय नियम आॅटोमैटिक्ली चलता रहता है। इसके लिए कुछ कहना और करना नही पड़ता है। क्योंकि यह हमारे कर्मों का लेखा और जोखा है। बहुत से लोग अपवित्रता के कारण परमात्मा से डायरेक्ट साथ और सहयोग लेने की हिम्मत नही दिखा पाते। इसलिए उनकी राह पर चलने वाले साथियों को भी पंडा बना लेते हैं और उनके द्वारा साथ ही और सहयोग को अपनी प्राप्ति समझ लेते हैं। परमात्मा की बजाये किसी आत्मा को अपना सहारा बना लेते हैं और परमात्मा से किनारा कर लेते हैं। तिनके को अपना सहारा समझने के कारण बार-बार तूफानों में हिलते और गिरते रहते हैं और सदैव प्राप्ति के किनारा से दूर का अनुभव करते हैं। किसी प्रकार के सहूलियत के आधार पर इनकी चलने की आदत बन जाती है। यह होगा, वह होगा, ऐसा होगा तभी पुरूषार्थ करेंगे। बिना आधार के पुरूषार्थ नही करेंगे। ऐसे सहूलियत रूपी लाठी के आधार पर चलते रहते हैं और बेहद का आधार न लेकर अल्पकाल के सहारे को अपना आधार बना लेते हैं। इसके कारण इनकी स्थिति एक रस नही रहती है बल्कि बार-बार परिवर्तन देखने को मिलता है। अभी-अभी बहुत खुशी और आनंद में होंगे और अभी-अभी मुरझाई, उदास और निरस अवस्था में होंगे। लेकिन, जो परमात्मा को आधार बनाते हैं वह अच्छे उल्लास, उमंग और हिम्मत का सहयोग लेकर अपने मंजिल के समीप पहुंच जाते हैं। लेकिन, जो ऐसा नही करते हैं वह कर्मों की गुण गति को न सकने का घबरा जाते हैं। मन में प्रश्न उठता है क्या लास्ट तक यही चलता रहेगा। इन व्यर्थ संकल्पों के उलझनों के कारण यह परमात्मा को प्यार भी नही करते। सोचने में ही अपना सारा टाइम बर्बाद कर देते हैं। इसके विपरीत जो परमात्मा को साथी बनाते हैं वे किसी तूफान को कोई तौहफा समझ लेते हैं और ड्रामा को तौहफा समझकर स्वभाव, संस्कारों के टक्कर को समझकर आगे बढ़ जाते हैं। माया को परखते हुए पार करते जाते हैं। इन्हें सदैव यह निश्चय बना रहता है कि हमें मंजिल पर पहुंचना ही है। परमात्मा को ऐसे व्यक्ति अपने जीवन की नैया दे देते हैं। इसके बाद सत्य के साथ हमारी नाव हिलेगे, डूलेगी लेकिन डूबेगी नही। इसलिए परमात्मा को अपनी जिम्मेदारी देकर फिर वापस न लें। क्या मैं चल सकूंगा, क्या मैं कर सकूंगा यह प्रश्न मैंपन की निशानी है। मैं पन मिटाना अर्थात परमात्मा का बनना। जब यही गलती करते हैं तब इसी गलती के कारण स्वयं उलझते और परेशान होते रहते हैं। मैं करता हूं, या मैं कर नही सकता हूं, इसमें मैं पन का भाव है। इसे ईगो कहते हैं। इसलिए ईगो अथवा मैं पन की भाषा बदलकर सारी जिम्मेदारी परमात्मा को दे दें। जैसे परमात्मा चलावे वैसे चलेंगे। जो कहेंगे वही करेंगे जिस स्थिति के आधार पर बैठाएं वहां बैठेंगे। इसलिए श्रीमत में मन मत अथवा मैं पन को मिक्स न करें। अपनों को और दूसरों को देखकर घबराएं नहीं। क्या होगा, यह भी हो जाएगा यह सब घबराहट के प्रश्न हैं। घबराहट को समाप्त करने के लिए मन की गहराई में जाएं। अनेक प्रकार के मानसिक परीक्षा रूपी बीमारियों को देखकर हम घबरा जाते हैं लेकिन यह अति ही अंत की निशानी है। प्रैक्टिकल पेपर में पास होने के लिए साक्षी दृष्टि का अभ्यास करना होगा। इसलिए जब भी कोई दृष्टि सामने आए तो पहले साक्षी दृष्टि की स्थिति की सीट पर बैठकर देखें फिर निर्णय करें। ऐसा करने से हम भय में नही होंगे हमंे अनुभव होगा कि हमारा कार्य हुआ ही पड़ा है इसलिए ही घबराने और भयभीत होने की जरूरत नही है। हमें ऐसा अनुभव होगा कि हमने ऐसी सीन अनेक बार देखा है। इसको कहते हैं पहाड़ समान पेपर को राई के समान अनुभव करना। कमजोर को पहाड़ लगेगा लेकिन शक्तिमान को राई का अनुभव होगा। साक्षी दृष्टा बनने पर परिस्थिति रूपी खेल मनोरंजन लगेगा। हारना, पीछे लौटना या रूकना यह कमजोरों का काम है यौद्धा का नही। रोज-रोज युद्ध करते-करते हम आलसी और लापरवाह हो जाते हैं। इसलिए कनेक्शन करके करंट को जोड़ें। कनेक्शन ठीक होगा तो आॅटोमैटिक्ली परमात्मा का करंट आता रहेगा। सर्वशक्तियां मिलती रहेंगी, हम हर्षित रहेंगे, गम समाप्त हो जाएगा, हर सैकेंड, हर संकल्प चढती कला का अनुभव करेंगे।चढती कला में आॅटोमैटिक्ली सर्व के प्रति भला होने लगता है और हम सेवा के निमित्त बन जाते हैं। कहा जाता है चढती कला तेरे बहाने सबका भला। इसके बाद हम अनेकों को रास्ता बताने के निमित्त बन जाते हैं और हमें रूकने और थकने की अनुभूति नही होती है। सदा अथक, उमंग, उत्साह में बने रहते हैं। अव्यक्त बाप दादा, महावाक्य मुरली 3 मई 1977
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