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गुरु ज्ञान की गंगा में मन का मैल,जन्मों की चिंताएं और कर्त्तापन का बोध भूल जाता है - गुरुदेव नन्दकिशोर श्रीमाली

 


हरिद्वार निखिल मंत्र विज्ञान एवं सिद्धाश्रम साधक परिवार की ओर से देवभूमि हरिद्वार के भूपतवाला स्थित स्वामी लक्ष्मी नारायण आश्रम में सौभाग्य कीर्ति गुरु पूर्णिमा महोत्सव का आयोजन उल्लास पूर्वक संपन्न हुआ। इस पावन पर्व के अवसर पर स्वामी लक्ष्मी नारायण आश्रम और आसपास का इलाका जय गुरुदेव व हर हर महादेव के जयकारों से गुंजायमान रहा। परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद (डॉ नारायण दत्त श्रीमाली) एवं माता भगवती की दिव्य छत्रछाया में आयोजित इस महोत्सव को संबोधित करते हुए गुरुदेव नंदकिशोर श्रीमाली ने गुरु एवं शिष्य के संबंध की विस्तृत चर्चा करते हुए शिष्य को गुरु का ही प्रतिबिंब बताया। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार स्वयं को देखने के लिए दर्पण के पास जाना पड़ता है,उसी प्रकार शिष्य को गुरु के पास जाना पड़ता है, जहां वह अपनी ही छवि देखता है। क्योंकि शिष्य गुरु का ही प्रतिबिंब है और गुरु भी हर शिष्य में अपना ही प्रतिबिंब देखते हैं। गुरु में ही शिष्य है और शिष्य में ही गुरु है। गुरु पूर्णिमा शिष्यों के लिए के लिए जन्मों से ढोते आ रहे कर्त्तापन की गठरी को गुरु चरणों में विसर्जित कर गुरु आलिंगन में बंधने का दिवस है। गुरु ज्ञान की गंगा में मन का मेल,जन्मों की चिंताएं और कर्त्तापन का बोध सब कुछ भूल जाता है। उन्होंने कहा कि आज अधिकतर व्यक्ति चिंताओं की बोझ तले व्यर्थ की भाग-दौड़ में लगा रहता है और व्यर्थ की भाग-दौड़ जीवन का गला घोट रही है। मनुष्य भय, आशंका और चिंता रूपी राक्षसों से बेचैन है। जबकि सबसे बड़ी शक्ति है-श्रद्धा,आशा, विश्वास और उत्साह। चिन्ता के द्वार से हटकर श्रद्धा का द्वार खटखटाना ही गुरु से जुड़ना है। जब श्रद्धा प्राप्त होगी तो देवत्व भी प्राप्त हो जाएगा। श्रद्धावान को ही ज्ञान प्राप्त होता है। दुनिया आपको उलाहना देती है, किसी भी बात के लिए दोषी ठहराती है, जबकि गुरु आपको आपके अंदर की शक्ति से परिचित कराते हैं कि तुम्हारे भीतर ही ब्रह्म की शक्ति है। गुरु चाहते हैं कि किसी भी परिस्थिति में आपका आत्मविश्वास नहीं टूटना चाहिए। आप वर्तमान में ही रहें, भविष्य की चिंताओं को छोड़ दें,क्योंकि भविष्य को किसी ने नहीं देखा है और वर्तमान क्षणों में जीना ही जीवन का परम आनंद है। जो ब्रह्मांड में है, वही आपके भीतर है। सूर्य से प्रार्थना यही है कि है कि हे सूर्य, आप उदित हों,आपके प्रकाश से मैं स्वयं के आत्मप्रकाश को जान सकूं, उस ब्रह्म पुरुष को शिव-पुरुष को,गुरु पुरुष को,ज्ञान पुरुष को जान सकूं। क्योंकि जैसा ही सूर्य बाहर है, वैसा ही सूर्य आपके भीतर है और उस भीतर के सूर्य से ही आप प्रकाशित हैं, बाहर के सूर्य से आप प्रकाशमान नहीं हैं। गुरु, शिष्य का आत्मभाव प्रकाशित करते हैं। जब आपका आत्मभाव प्रकाशित हो जाएगा,तब गुरु आपको यह ज्ञान प्रदान करते हैं,वह आत्मभाव प्रकाशित करते हैं कि मैं ही ब्रह्म का स्वरूप हूं। जो ब्रह्मांड है, जो परमात्मा है,उसका वास मेरे भीतर है। वह ज्ञान गुरु के द्वारा प्रदान किया जाता है। उस दिन यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि यथा पिण्डे तथा ब्रह्मांडे। तब जाकर परमानंद की प्राप्ति होती है। इससे पूर्व महोत्सव का शुभारंभ गणपति पूजन एवं निखिल (गुरु) पूजन के साथ हुआ। कार्यक्रम का संचालन डॉ राम चैतन्य शास्त्री और मनोज भारद्वाज ने किया,जबकि महेंद्र सिंह मानकर की भजन प्रस्तुतियों से सभी शिष्य व साधक झूमते व थिरकते रहे।


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