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धर्म के मार्ग पर चलने वाले की भगवान सदा रक्षा एवं सहायता करते हैं- शास्त्री

 


हरिद्वार। श्री राधा रसिक बिहारी भागवत परिवार सेवा ट्रस्ट के तत्वाधान में स्वागत बैंकट हॉल आर्य नगर चौक ज्वालापुर में आयोजित श्रीमद्भागवत कथा के द्वितीय दिवस पर भागवताचार्य पंडित पवन कृष्ण शास्त्री ने कौरव एवं पांडवों का चरित्र वर्णन कराते हुए राजा परीक्षित के जन्म की कथा श्रवण करायी। श्रद्धालुओं को कथा सुनाते हुए पंडित पवन कृष्ण शास्त्री ने बताया कि द्रौपदी को जब अश्वत्थामा द्वारा उसके पांचों पुत्रों की हत्या का समाचार मिला तो उसने आमरण अनशन कर दिया और कहा कि अश्वतथामा के मस्तक पर सदैव रहने वाली मणि जब उसे प्राप्त होने पर ही वह अनशन तोड़ेगी। अर्जुन अश्वत्थामा को पकड़ने के लिए निकल पड़े। अश्वत्थामा तथा अर्जुन के मध्य भीषण युद्ध छिड़ गया। अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, इस पर अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र छोड़ा। नारद तथा व्यास के कहने से अर्जुन ने अपने ब्रह्मास्त्र का उपसंहार कर दिया, किन्तु अश्वत्थामा ने पांडवों को जड़-मूल से नष्ट करने के लिए अभिमन्यु की गर्भवती पत्नी उत्तरा पर ब्रह्मास्त्र का वार किया। कृष्ण ने कहा- उत्तरा को परीक्षित नामक बालक के जन्म का वर प्राप्त है। उसका पुत्र अवश्य ही जन्म लेगा। नीच अश्वत्थामा यदि तेरे शस्त्र-प्रयोग के कारण वह बालक मृत हुआ तो भी मैं उसे जीवनदान दूँगा। वह भूमि का सम्राट होगा और तू इतने वधों का पाप ढोता हुआ तीन हजार वर्ष तक निर्जन स्थानों में भटकेगा। तेरे शरीर से सदैव रक्त की दुर्गंध निरूसृत होती रहेगी। तू अनेक रोगों से पीड़ित रहेगा। व्यास ने भी श्रीकृष्ण के वचनों का अनुमोदन किया। अर्जुन अश्वत्थामा को रस्सी में बांधकर द्रौपदी के पास ले आये। द्रौपदी ने दयार्द्र होकर उसे छोड़ने को कहा किंतु श्रीकृष्ण की प्रेरणा से अर्जुन ने उसके सिर से मणि निकालकर द्रौपदी को दे दी। उत्तरा के गर्भ में बालक ब्रह्मास्त्र के तेज से दग्ध होने लगा। तब श्रीकृष्ण ने सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में प्रवेश किया। उनका वह ज्योतिर्मय सूक्ष्म शरीर अँगूठे के आकार का था। वे चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए थे। कानों में कुंडल तथा आँखें रक्तवर्ण थीं। हाथ में जलती हुई गदा लेकर गर्भ स्थित बालक के चारों ओर घुमाते थे। जिस प्रकार सूर्यदेव अन्धकार को हटा देते हैं, उसी प्रकार वह गदा अश्वत्थामा के छोड़े हुए ब्रह्मास्त्र की अग्नि को शांत करती थी। माता के गर्भ स्थित वह बालक उस ज्योतिर्मय शक्ति को अपने चारों ओर घूमते हुये देखता था। वह सोचने लगता कि यह कौन है और कहाँ से आया है। कुछ समय पश्चात् पाण्डव यज्ञ की दीक्षा के निमित्त राजा मरुत का धन लेने के लिये उत्तर दिशा में गये हुए थे। उसी बीच उनकी अनुपस्थिति में तथा श्रीकृष्ण की उपस्थिति में दस मास पश्चात् उस बालक का जन्म हुआ। बालक के जन्म का समाचार सुनकर श्रीकृष्ण तुरन्त ही सात्यकि को साथ लेकर अन्तःपुर पहुँचे। भगवान श्रीकृष्ण ने उस बालक का नाम ‘परीक्षित’ रखा, क्योंकि वह कुरुकुल के परिक्षीण (नाश) होने पर उत्पन्न हुआ था। महाराज युधिष्ठिर ने जब पुत्र जन्म का समाचार सुना तो वे अति प्रसन्न हुए और उन्होंने असंख्य गाय, गाँव, हाथी, घोड़े, अन्न आदि ब्राह्मणों को दान दिये। उत्तम ज्योतिषियों को बुलाकर बालक के भविष्य के विषय में प्रश्न पूछे। ज्योतिषियों ने बताया कि वह बालक अति प्रतापी, यशस्वी तथा इच्क्ष्वाकु समान प्रजापालक, दानी, धर्मी, पराक्रमी और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का भक्त होगा। एक ऋषि के शाप से तक्षक द्वारा मृत्यु से पहले संसार के माया मोह को त्यागकर गंगा के तट पर श्री शुकदेव से आत्मज्ञान प्राप्त करेगा। धर्मराज युधिष्ठिर ज्योतिषियों के द्वारा बताये गये भविष्यफल को सुनकर प्रसन्न हुए और उन्हें यथोचित दक्षिणा देकर विदा किया। वह बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। परीक्षित का राज्य अभिषेक कर पांडव स्वर्गारोहण के लिए चले गए और परीक्षित राज सिंहासन पर विराजमान होकर प्रजा का पालन करने लगे शास्त्री ने बताया जो भी धर्म के मार्ग पर चलता है एवं भगवान की शरण में रहता है भगवान हमेशा उसकी रक्षा एवं सहायता करते हैं। इसलिए जिस प्रकार से पांडवों ने हमेशा धर्म का मार्ग चुना सभी को अपने जीवन में धर्म के मार्ग पर ही चलना चाहिए। कथा में मुख्य जजमान योगेश कौशिक,सुनीता कौशिक, विश्वेश्वर दयाल शर्मा,परमेश कौशिक, अविनेश कौशिक,समर्थ कौशिक,सुशांत कालिया,यामिनी कालिया,निशांत कौशिक,तुषार कौशिक,प्रशांत कौशिक ने भागवत पूजन कर कथा व्यास से आशीर्वाद लिया। 


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